आमतौर पर प्राचीन त्यौहरों पर तथाकथित पंजीकृत बुध्दजीवियों के बड़े मार्मिक और विद्वतापूर्ण तार्किक अपील तमाम संचार माध्यमों में सुनामी की तरह दिखाई सुनाई पड़ते है! मसलन अभी दीपोत्सव का पर्व है तो आपको सभी संचार माध्यमों में ग्लोबल वार्मिंग तथा पर्यावरण और ध्वनि प्रदूषण का वास्ता देकर फटाखे ना फोड़ने की मार्मिक अपील सुनाई और दिखाई दे रही होगी साथ ही साथ अखबारों और टी वी पर इस मौसम में नकली मावा के खबर भी प्रमुखता से प्रकाशित और प्रचारित होते नजर आ रहे होंगे!
क्या कभी आपने सोचा है ऐसा केवल दीपावली के पूर्व ही क्यों होता है! अभी कुछ दिन पहले गणेशोत्सव पर आपको भगवान गणेश की बड़ी बड़ी मूर्तियों के द्वारा पर्यावरण प्रदूषण पर इको फ्रेंडली बुध्दजीवियों द्वारा उनके दिव्य मुखारविंद से चाशनी में डूबे हुए गूढ़ज्ञान से अभिभूत किया गया होगा लेकिन इन दिव्य आत्माओं के हरएक परिवार के नौनिहालों द्वारा वर्ष भर में जिव्हास्वादन के लिए उदरस्थ स्नेक्स और चाकलेटों के प्लास्टिक रैपर को अगर जमा किया जाय तो विश्व की सबसे बड़ी गणेश प्रतिमा भी बौनी लगने लगे! देश के चौथे आधार स्तम्भ मीडीया में जड़ित रत्न महामना पंकज पचौरी जी ने तो ये भी सलाह दे डाली कि गणेश उत्सव में व्यर्थ में पैसा बहाने के बजाय इन पैसों को मुम्बई की सुरक्षा में उपयोग किया जाना चाहिए! हाँ परचोरी जी सही कहते हैं आप ताकि सरकार द्वारा टैक्स में लिये जाने वाले पैसे से आपको पेड न्यूज दिया जा कर भारत निर्माण किया जा सके!
ये बात सही है कि नकली मावा का उपयोग मिष्ठान निर्माण में किया जाता है लेकिन इन समाजसेवियों को केवल त्यौहारों पर ही आमजन के स्वास्थ्य की चिंता क्यों सताती है और फिर टी वी पर इस विषय पर प्रायोजित गहन चिंतन के कार्यक्रम के बीच बीच में विज्ञापन के रूप में कोई महानायक आकर आपसे पूछता है इस दीवाली आप किसे खुश करेंगे चलो कुछ मीठा हो जाय वो भी खालिश इम्पोर्टेड!
इतना जान लें पर्यावरण सम्बंधी संदेश में कोई बुराई नहीं है लेकिन जिन लोगों का संगठित गिरोह ऐसी अपील जारी करता हैं उनकी असलियत और नीयत जान लें! जरा नजर रखें वे लोग अपने निजी उत्सव में कैसी आतिश बाजी करते हैं! कोई सड़कछाप भी यदि किसी संगठन का मोहल्ला अध्यक्ष भी बन जाये तो पूरा शहर आतिशवाजी और पोस्टर बैनर से रंगीन हो जाता है! नेता का कोई नवीन पद धारण कर अपने ही क्षेत्र में आने पर इतनी आतिशबाजी की जाती है जितनी कि दीपावली में एक पूरे छोटे शहर के द्वारा नहीं की जाती होगी और उत्सव का माहौल ऐसा कि या तो नेताजी प्रथम बार अपने पैतृक शहर में पधार रहे हैं या फिर ये उनका अंतिम प्रवास है! लेकिन ये प्रदूषण की श्रेणी में नहीं आता! इन चिंतनशील बुध्दजीवियों को दीपावली के फटाको का प्रदूषण तो दिखाई देता है किंतु कारखानों से निकलते अपविष्ट पदार्थों का और उनसे तथा ट्रैफिक जाम में लाखों गाड़ियों से निकलने वाले धुँये से होता प्रदुषण दिखाई नहीं देता!
मैंने हमेशा इन दिव्य आत्माओं से होली पर भी पानी बचाने की बड़ी विद्वतापूर्ण मार्मिक अपील सुनी है और कमोबेश ये मार्मिक अपील उन लोगों के द्वारा की जाती है जो केवल अपने मुखमण्डल की आभा बनाये रखने के लिए एक परिवार की आवश्यकता से अधिक पानी का उपयोग करते हैं तथा इनके परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए पृथक वाहन की व्यवस्था होती है एवं एक ही गंतव्य में जाने हेतु वे अपने स्वयं के वाहन का उपयोग करना नैतिक धर्म समझते हैं और इनकी लम्बी कारें अपने स्वामियों की तरह ही स्वच्छ और चमकदार दिखने के लिए सैकड़ो लीटर पानी से रोज नहाती हैं!
मंदिरों में यदा कदा होने वाली बलिप्रथा पर ये स्वघोषित प्रशु प्रेमी अपना घोर विरोध जताकर आँदोलन तो करते हैं लेकिन उनके सपने में भी किसी मल्टीनेशनल मेक्डॉनाल्ड या KFC चिकन का विरोध नहीं दिखता! अगर धोखे से इनकी गाड़ी या ये स्वयं ही सपरिवार इन अट्टालिकानुमा प्रतिष्ठानो के बाहर दिखाई दे जायें तो प्रसन्न होकर आश्चर्यचकित ना हों! ये तो बस अपने साप्ताहिक अवकाश का आनंद उठाने आये होते हैं!
बस अब जाने दे लिखने को तो इस पर दिन भर लिख सकता हूँ लेकिन दिक्कत ये है कि इस लेख को प्रथम तो कोई पढ़ेगा नहीं और पढ़ भी लिया तो मानने को तैयार नहीं होगा क्योंकि हम कोई जेएनयू उत्पादित बुध्दजीवी तो हैं नही इसलिए किसी को समझाना मतलब पत्थर में सर फोड़ना है!
अच्छा है इस दीपावली फटाखे ना फोड़कर रूकरूक खान की रावण फिल्म किसी मल्टीप्लेक्स में देखें और मोरानी मामा को फायदा पहुँचायें ताकि उन पैसों से फिर दिल्ली हाईकोर्ट जैसा कोई धमाका कर प्रदूषण रहित सामूहिक सेक्यूलर दीपावाली उत्सव मनाया जा सके!
मेरी शुभकामना आपके लिए! इस दीपावली धनलक्ष्मी आपके घर आयें और कुछ दिन आपको प्रसन्न कर आपके माध्यम से पूँजीपतियों के स्विस खातों में स्थायी रूप से निवास करें !! जय हो !!