बुधवार, 25 जुलाई 2012

महामहिम का घोड़ा








प्रतिभाताई ने आखिरकार अपनी कुर्सी प्रणब दा को दे दी और प्रणब बाबू जो कभी अगले जनम में महामहिम का घोड़ा बनना चाहते थे इस जनम में ही स्वयं महामहिम हो कर ऐसे कई घोड़ों के मालिक हो गये ।



प्रणव दा आप राष्ट्रपति का घोड़ा इसलिए बनना चाहते थे ना  क्योंकि उसे कुछ काम नहीं करना पड़ता लेकिन आपने कभी इन घोड़ों की  मजबूरी पर गौर किया कि उन्हे गधों को अपनी पीठ पर बिठाकर सवारी करानी पड़ती है ।



लेकिन प्रणब दा आप इस जनम में ही पूरे जीवन भर घोड़ा ही बने रहे कभी घुड़सवार नहीं बन सके और राष्ट्रपति के घोड़ों की तरह ही पवित्र परिवार के घुड़साल बंधे रहे । पवित्र परिवार ने आपकी घुड़सवारी का पूरा आनंद और लाभ उठाया और जब-जब उन्हे अपनी साख बचाने की जरूरत हूई, आपकी पीठ पर काठी कस दी लेकिन आपको उन्होने कभी घुड़सवार नहीं बनाया । आपकी ये अंदरूनी टीस 1984 में फूट भी पड़ी थी ।



घोड़े का घुड़सवार ना बन पाना उतनी टीस नहीं देती जितना यदि उसका मालिक उसकी पीठ पर गधे को बिठा कर सवारी करा दे । इस तकलीफ को कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है । 28 वर्षों से अपनी पीठ पर गधों को ढोते ढोते आपकी अंतरात्मा कितनी तकलीफ झेली होगी यह मैं समझ सकता हूँ ।



आपकी ये असह्य मानसिक पीड़ा बिल्कुल जायज भी है ।  आपके मानसिक वेदना की हद तो तब हो गई जब अपने अधीनस्थ कार्य करने वाला गधा आपका घुड़सवार हो गया और आप उसे पिछले 7 वर्षों से पवित्र परिवार की खुशी के लिए ढोये जा रहे हैं । जाने कैसे सही आपने इतनी पीड़ा .... 

खैर कहते हैं भगवान के घर देर है अंधेर नहीं । इस बात का शुक्र मनाईये कि अगर 2014 राज्योत्सव में डी कम्पनी बाई डिफाल्ट पुन: कुर्सी पा जाती तो आपको गधे की जगह शूकर को ढोना पड़ता और श्वान के निर्देशन के कार्य करना पड़ता । कम से कम इस जलालत से तो आप बच गये ।



आप अब घुड़सवार बन गये हैं । देश की सर्वोच्च पद पर आसीन होने पर मैं आपका पूरी देश की जनता की ओर से हार्दिक बधाई देता हूँ , अभिनंदन करता हूँ और आपसे अपेक्षा करता हूँ कि देश की बागडोर सम्भाले राजनीतिक जीवन के अंतिम पायदान में आप भ्रमण, सैर सपाटे और शापिंग से इतर राष्ट्रहित में लीक से हटकर कुछ ऐसे कदम उठायें जिनका दूरगामी परिणाम हो और यह कृतज्ञ देश सदैव आभारी रह आपका स्मरण करता रहे ।

रविवार, 22 जुलाई 2012

अमरनाथ यात्रा - भाग 2


इतिहास के पन्नो से

श्री अमरनाथ यात्रा के उद्गम के बारे में इतिहासकारों के अलग-अलग विचार हैं। कुछ लोगों का विचार है कि यह ऐतिहासिक समय से संक्षिप्त व्यवधान के साथ चली आ रही है जबकि अन्य लोगों का कहना है कि यह 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में मलिकों या मुस्लिम गडरियों द्वारा पवित्र गुफा का पता लगाने के बाद शुरू हुई। आज भी चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिए के वंशजों को मिलता है। इतिहासकारों का विचार है कि अमरनाथ यात्रा हज़ारों वर्षों से विद्यमान है तथा बाबा अमरनाथ दर्शन का महत्त्व पुराणों में भी मिलता है। पुराण अनुसार काशी में लिंग दर्शन और पूजन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और नैमिषारण्य से हज़ार गुना पुण्य देने वाले श्री अमरनाथ के दर्शन है। बृंगेश सहिंता, नीलमत पुराण, कल्हण की राजतरंगिनी आदि में इस का बराबर उल्लेख मिलता है। बृंगेश संहिता में कुछ महत्त्वपूर्ण स्थानों का उल्लेख है जहाँ तीर्थयात्रियों को श्री अमरनाथ गुफा की ओर जाते समय धार्मिक अनुष्ठान करने पड़ते थे। उनमें अनन्तनया (अनन्तनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी (2,811 मीटर), सुशरामनगर (शेषनाग) 3454 मीटर, पंचतरंगिनी (पंचतरणी) 3845 मीटर और अमरावती शामिल हैं।


कल्हण की 'राजतरंगिनी तरंग द्वितीय' में कश्मीर के शासक सामदीमत (34 ईपू-17वीं ईस्वी) का एक आख्यान है। वह शिव का एक बड़ा भक्त था जो वनों में बर्फ़ के शिवलिंग की पूजा किया करता था। बर्फ़ का शिवलिंग कश्मीर को छोड़कर विश्व में कहीं भी नहीं मिलता। कश्मीर में भी यह आनन्दमय ग्रीष्म काल में प्रकट होता है। कल्हण ने यह भी उल्लेख किया है कि अरेश्वरा (अमरनाथ) आने वाले तीर्थयात्रियों को सुषराम नाग (शेषनाग) आज तक दिखाई देता है। नीलमत पुराण में अमरेश्वरा के बारे में दिए गए उल्लेख से पता चलता है कि इस तीर्थ के बारे में छठी - सातवीं शताब्दी में भी जानकारी थी ।



कश्मीर के महान शासकों में से एक था 'जैनुलबुद्दीन' (1420-70 ईस्वी), जिसे कश्मीरी लोग प्यार से बादशाह कहते थे, उसने अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी। इस बारे में उसके इतिहासकार जोनरजा ने उल्लेख किया है।



अकबर के इतिहासकार अबुल फ़जल (16वीं शताब्दी) ने आइना-ए-अकबरी में उल्लेख किया है कि अमरनाथ एक पवित्र तीर्थस्थल है। गुफा में बर्फ़ का एक बुलबुला बनता है। जो थोड़ा-थोड़ा करके 15 दिन तक रोजाना बढता रहता है और दो गज से अधिक ऊंचा हो जाता है। चन्द्रमा के घटने के साथ-साथ वह भी घटना शुरू कर देता है और जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है।

ऑक्सफ़ोर्ड में भारतीय इतिहास के लेखक विसेंट ए स्मिथ ने बरनियर की पुस्तक के दूसरे संस्करण का सम्पादन करते समय टिप्पणी की थी कि अमरनाथ गुफा आश्चर्यजनक जमाव से परिपूर्ण है जहां छत से पानी बूंद-बूंद करके गिरता रहता है और जमकर बर्फ़ के खंड का रूप ले लेता है। इसी की हिन्दू शिव की प्रतिमा के रूप में पूजा करते हैं।



स्वामी विवेकानन्द ने 1898 में 8 अगस्त को अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी और बाद में उन्होंने उल्लेख किया कि मैंने सोचा कि बर्फ़ का लिंग स्वयं शिव हैं। मैंने ऐसी सुन्दर, इतनी प्रेरणादायक कोई चीज़ नहीं देखी और न ही किसी धार्मिक स्थल का इतना आनन्द लिया है।



लारेंस अपनी पुस्तक 'वैली ऑफ़ कश्मीर' में कहते हैं कि मट्टन के ब्राह्मण अमरनाथ के तीर्थ यात्रियों में शामिल हो गए और बाद में बटकुट में मलिकों ने ज़िम्मेदारी संभाल ली क्योंकि मार्ग को बनाए रखना उनकी ज़िम्मेदारी है, वे ही गाइड के रूप में कार्य करते हैं और बीमारों, वृद्धों की सहायता करते हैं, साथ ही वे तीर्थ यात्रियों की जान व माल की सुरक्षा भी सुनिश्चित करते हैं। इसके लिए उन्हें धर्मस्थल के चढावे का एक तिहाई हिस्सा मिलता है। जम्मू कश्मीर में हिन्दुओं के विभिन्न मंदिरों का रखरखाव करने वाले धमार्थ न्यास की ज़िम्मेदारी संभालने वाले मट्टन के ब्राह्मण और अमृतसर के गिरि महंत जो कश्मीर में सिक्खों की सत्ता शुरू होने के समय से आज तक मुख्यतीर्थ यात्रा के अग्रणी के रूप में 'छड़ी मुबारक' ले जाते हैं, चढावे का शेष हिस्सा लेते हैं।

अमरनाथ तीर्थयात्रियों की ऐतिहासिकता का समर्थन करने वाले इतिहासकारों का कहना है कि कश्मीर घाटी पर विदेशी आक्रमणों और हिन्दुओं के वहां से चले जाने से उत्पन्न अशांति के कारण 14वीं शताब्दी के मध्य से लगभग तीन सौ वर्ष की अवधि के लिए यात्रा बाधित रही। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 1869 के ग्रीष्म काल में गुफा की फिर से खोज की गई और पवित्र गुफा की पहली औपचारिक तीर्थ यात्रा तीन साल बाद 1872 में आयोजित की गई थी। इस तीर्थयात्रा में मलिक भी साथ थे।





वर्तमान व्यवस्था -

मैंने सुन रखा है कि इस यात्रा की तैयारी एवं व्यवस्था अमरनाथ श्राईन बोर्ड करता है किंतु केवल मोबाईल कनेक्टिविटी सुविधा जो इस वर्ष ही प्रारंभ की गई है और केंद्रीय सरकार द्वारा प्रदत्त की गई है, को छोड़ दें तो श्राईनबोर्ड के द्वारा केवल दान के रूपयों को समेटने के अलावा कोई सुविधा नहीं दी जा रही है । श्रध्दालुओं के ठहरने की टैण्ट व्यवस्था स्थानीय व्यवसायी लोगों के द्वारा शुल्क लेकर की जा रही है । हजारों लोगों के लिए शौचालय की भी व्यवस्था ऐसी स्थिति है कि आपातकालीन स्थिति में अगर कोई आ जाये तो शर्मिंदा होने के अलावा कोई चारा नहीं है ।



लेकिन इन सब के इतर सबसे बड़ी खामी है सुरक्षा व्यवस्था । मेरे सहयात्री हेमंत नायडू और अजय डाँगे जिन्हे कई बार इस यात्रा का अनुभव है, ने बताया कि पहले पूरी सुरक्षा की कमान सेना और बीएसएफ के हाथों होती थी, जो सुरक्षा मानकों को पूरी गंभीरता से पालन करते हुए सेवाभाव की भी अनूठी मिसाल पेश करते थे किंतु इस बार राज्य सरकार ने जबरिया राजनीति कर इसे अपनी स्थानीय पुलिस के हवाले कर दिया है । जिससे कई संकरी जगहों पर घण्टों पदयात्रियों के जाम की स्थिति निर्मित हो जाती है । सेना केवल यात्रा के दौरान अपनी उपस्थिति का एहसास ही करा रही है और उनके उपस्थिति से ही यात्रा में मानसिक सम्बल प्राप्त होता है वरना अव्यवस्था की स्थिति भयावह होती । काफी हद तक श्रध्दालु स्व अनुशासित रहते हैं जिससे स्थिति तनावपूर्ण किंतु नियंत्रण में बनी रहती है लेकिन कभी कभी बर्फ के ग्लेशियर से बने पुल पर भी जाम की स्थिति बनती रहती है जिससे दबाव के कारण ग्लेशियर के टूटने पर सैकड़ों लोग पल भर में काल के ग्रास में समाहित हो सकते हैं । सेनापति ने बताया कि पिछले किसी यात्रा के दौरान उनके एक परिचित ने बीस फुट की दूरी से ही ऐसे एक ग्लेशियर पुल को टूटते देखा था जिसमें लगभग 200 लोग समाकर मारे गये ।



पहलगाम में चेक पोस्ट पर हमने अपना लगेज चैक करवाया लेकिन मेरे एक भारी सुटकेस को ड्रायवर ने ये कह कर गाड़ी में ही रखने को कहा कि मैं इसे पार करवाकर ले आऊँगा, बस आपसे कोई पूछे तो कह देना भारी है इसलिए गाड़ी में छोड दी और वह उसे बिना चेकिंग के पार करवाकर ले आया । मेरे नजरिये से तो यह सुविधा जनक था और उसमें कोई आपत्तिजनक सामग्री भी नहीं थी लेकिन सोचिए कोई इस तरह एक बड़ी अटैची में  कितना विस्फोटक पार कर सकता है ?

चंदनबाड़ी से पदयात्रा प्रारंभ करने की जाँच चौकी में श्राईन बोर्ड द्वारा जारी यात्रा पर्ची के एक हिस्से को फाड़कर रख लिया गया । उस पर्ची से ना तो मेरे चेहरे और जानकारी का मिलान किया गया न ही मेरे बैग की जाँच की गई । और उसके बाद पूरी यात्रा के दौरान कहीं पर भी किसी प्रकार की कोई जाँच नहीं की गई ।  इसका अर्थ यह है कि आप किसी की भी यात्रा पर्ची में प्रवेश कर यात्रा कर सकते हैं और कैसा भी सामग्री आसानी से यात्रा पर ले जा सकते हैं ।



पर्यावरण मित्र होने का दावा करने और नो प्लास्टिक जोन का बोर्ड लगाकर श्राईन बोर्ड स्वयं को महिमा मण्डित करने से नहीं चूक रहा किंतु रास्ते भर पालीथीन का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है और खुलेआम पान मसाले के गुटके के पाऊच, सिगरेट और पतली पालीथिन के डिस्पोजल रैनकोट भारी मात्रा में बिक रहे थे, जो यकीकन उपयोग उपरांत घाटी में प्रदुषण फैला रहे थे । गुफा के पहले संगम टॉप पर जहाँ श्रध्दालु स्नान आदि कर दर्शन को जाते हैं किसी प्रकार का कोई शौचालय नहीं है । लोग बर्फीले ग्लेशियर पर खुले में ही शौच करते हैं, मुझे नहीं पता महिलाओं को कितनी तकलीफ का सामना करना पड़ता होगा । गुफा से पहले भी दर्शनार्थ लगी लाईन का नियंत्रण स्वयं श्रध्दालु ही कर रहे थे और स्थानीय पुलिस दर्शक बनी हुई नजर आई । घोड़ों, टट्टुओं और पालकियों के दर इस पर निर्भर थे कि कौन किस दर्शनार्थी को कितना लूट सकता है।



यदि देश के विभिन्न हिस्सों विशेषकर पंजाब , हरियाणा गुजरात और राजस्थान के वणिक भक्तों के द्वारा जगह जगह पर खाने के भण्डारे नहीं लगाये जाते तो गरीब यात्री मौसम, आक्सीजन और अन्य वजहों से नहीं भूख से ही मर जाता । इन भण्डारों के भोजन की गुणवत्ता और उससे भी बढ़कर उनका आग्रह और सेवाभाव , मैने अपने पूरे जीवन काल में कहीं नहीं देखा । अद्भुत और अतुलनीय आग्रह .. “आईये ना भोले प्लीज” । तमाम असुविधाओं और तकलीफों के बावजूद यही आग्रह दिनों दिन यात्रा में श्रध्दालुओं की संख्या में उत्तरोत्तर वृध्दि कर रहा है और सच कहूँ तो मैं यदि दुबारा इस यात्रा में जाऊँगा तो इसका कारण बाबा बर्फानी के दर्शन से ज्यादा इन भण्डारो के सेवा और समर्पण भाव ही होगा । 

शनिवार, 21 जुलाई 2012

अमरनाथ यात्रा - भाग 1

बाबा बर्फानी कथा रहस्य




बाबा बर्फानी का प्रत्यक्ष आशीर्वाद एवं मेरा परम सौभाग्य कि इस वर्ष उनके दर्शन का अवसर मुझे प्राप्त हुआ । वास्तव में अमरनाथ यात्रा अपने नाम को चरितार्थ करती है “अमरत्व की यात्रा”  । 46 किमी की यह यात्रा व्यक्ति को स्वर्ग की अनूभूति कराती है । यदि आप उड़न खटोले (हैलीकाप्टर) से वहाँ पहुँचते हैं तो उसे मेरे अनुसार अमरनाथ यात्रा के स्थान पर अमरनाथ दर्शन कहना उचित होगा । स्वार्गिक अनुभूति के लिए बर्फीली पहाड़ियों में संकरे और खड़ी चढा‌ई वाले पगडंडियों पर पैदल यात्रा ही करना होगा । यद्यपि पथरीली , बर्फीली, संकरी, तीक्ष्ण चढ़ाई वाले इस रास्ते में एक ओर गहरी खाई है जिस पर कभी कभी मौत से केवल एक डगमगाते कदम का ही फासला होता है लेकिन फिर भी भक्तों का उत्साह और भोले के जयकारे से सारा भय ऐसे काफूर हो जाता है जैसे आदित्य के उदय से ओस की बूँदे ।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माता पार्वती ने एक बार बाबा श्री विश्वनाथ देवाधिदेव महादेव से शिकायती लहजे में प्रश्न किया कि आप तो अजर अमर है और मुझे ही हर जन्म के बाद नए स्वरुप में आकर पुन: वर्षो की कठोर तपस्या के बाद आपको प्राप्त करना होता है | जब मुझे आपको ही प्राप्त करना है तो बार बार मेरी इतनी कठोर परीक्षा क्यूँ ? आखिर आपके अजर अमर होने का रहस्य क्या है ? महाकाल ने पहले यह गूढ़ रहस्य बताना उचित नहीं समझा किंतु स्त्री हठ के आगे महादेव की भी न चली | अन्ततोगत्वा देवाधिदेव महादेव शिव ने माता पार्वती को अपनी साधना की अमर कथा कहने हेतु उपयुक्त एवं निर्जन स्थान की तलाश की एवं हिमालय की पहाड़ियों में एक गुफा में इसका महात्म्य एवं रहस्य बताया जिसे हम अमरत्व की कथा के रूप में जानते है । इसी परम पावन गुफा को हम अमरनाथ गुफा के रूप में प्रसिध्द हुआ |

पवित्र गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इसे स्वयंभू हिमानी शिवलिंग भी कहते हैं। गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है और इसमें ऊपर से बर्फ के पानी की बूँदें जगह-जगह टपकती रहती है। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूंदों से लगभग बीस फुट लंबा शिवलिंग बनता है। चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इसका आकार भी घटता-बढ़ता रहता है। श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यह है कि यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है। जबकि गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो कि हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग -अलग हिमखंड हैं। इस गुफा में बाबा बर्फानी के दिव्य दर्शन हेतु अमरनाथ यात्रा हिन्दी मास के आषाढ़ पूर्णिमा से श्रावण मास की पूर्णिमा तक होती है, जो अंग्रेजी माह जुलाई से अगस्त तक लगभग 45 दिन तक चलती है।



देवाधिदेव महादेव ने माता पार्वती से एकान्त व गुप्त स्थान पर अमर कथा सुनने को कहा ताकि इस अमर कथा को कोई भी जीव न सुन ले क्योंकि यदि कोई इसका श्रवण कर लेता वह अमर हो जाता। इस कारण भोलेनाथ ने माता पार्वती को लेकर गुप्त एवं निर्जन स्थान की ओर चल पड़े। सर्व प्रथम भगवान भोलेनाथ नें अपने शरीर पर लिपटे असंख्य नागों को एक स्थान पर छोड़ दिया जो अनंतनाग के नाम से जाना जाता है तत्पश्चात अपनी सवारी नन्दी को जिस स्थान पर छोड़ दिया उसे बैलगाम कहते थे जो कालांतर में पहलगाम के नाम से जाना जाने लगा, इसीलिए बाबा अमरनाथ की यात्रा अननंतनाग होते हुए पहलगाम से शुरू करने का तात्पर्य या बोध होता है। आगे चलने पर शिव जी ने अपनी जटाओं से चन्द्रमा को एक स्थान पर अलग कर दिया जो अब चन्द्रबाड़ी से अपभ्रंश होकर चंदनबाड़ी कहलाता है फिर कुछ दूर चलकर भोलेनाथ ने शरीर में लिपटे पिस्सुओं को एक पहाड़ी की चोटी पर तजा जनश्रुति के अनुसार वह स्थान ही पिस्सुटाप है । उपर्युक्त निर्जन स्थान की खोज में भोलेनाथ ने कुछ दूर जाकर कंठाभूषण शेषनाग को हिमाच्छादित पर्वतों से घिरे एक झील पर छोड़ दिया इस प्रकार इस पड़ाव का नाम शेषनाग पड़ा । यही झील लिद्दर नदी का उद्गम स्थल भी है । यात्रा के अगले पड़ाव में खड़ी चढ़ाई के पश्चात एक पहाड़ी के शीर्ष पर उन्होने अपने पुत्र गणेश को भी छोड़ दिया यह स्थान ही गणेश टॉप कहलाता है और उस पर्वत को महागुणास का पर्वत भी कहा जाता है। इस महागुणास दर्रे के पश्चात ढलान है जिसके बाद पंचतरणी का सुंदर स्थल आता है । जटा स्थित जीवनदायिनी पांचों तत्वों को समाहित की हुई गंगाजी को उन्होने इस स्थान पर छोड़ा इसकारण यह स्थल पंचतरणी कहलाया । पंचतरणी से खड़ी चढ़ाई के पश्चात संगम टॉप नामक स्थान आता है इसी स्थान पर बालटाल से आने वाला मार्ग भी मिलता है । इस बर्फीली चोटी से आपको यात्रा में पहली बार बाबा बर्फानी की पवित्र गुफा दृश्यमान होती है। इसके बाद भगवान भोलेनाथ माता पार्वती के साथ एक गुप्त गुफा में प्रवेश कर गये। यही वह गुफा है जहाँ भोलेनाथ पवित्र बाबा बर्फानी के रूप में अपने दिव्यदर्शन देते हैं । कोई व्यक्ति, पशु या पक्षी गुफा के अंदर प्रवेश कर अमर कथा को न सुन सके इसलिए शिव जी ने अपने चमत्कार से गुफा के चारों ओर आग प्रज्जवलित कर दी। फिर शिव जी ने जीवन की अमर कथा मां पार्वती को सुनाना शुरू किया। कथा सुनते-सुनते देवी पार्वती को नींद आ गई और वह सो गईं जिसका शिव जी को पता नहीं चला. भगवन शिव अमर होने की कथा सुनाते रहे | इस समय दो सफेद कबूतर श्री शिव जी से कथा सुन रहे थे और बीच-बीच में गूटर-गूं की आवाज निकाल रहे थे. शिव जी को लग रहा था कि माँ पार्वती कथा सुन रही हैं और बीच-बीच में हुंकार भर रहीं हैं. इस तरह दोनों कबूतरों ने अमर होने की पूरी कथा सुन ली |

कथा समाप्त होने पर भोलेनाथ का ध्यान माता पार्वती की ओर गया जो सो रही थीं | शिव जी ने सोचा कि पार्वती सो रही हैं तब इसे सुन कौन रहा था | तब महादेव की दृष्टि इन कबूतरों पर पड़ी ।  महादेव कबूतरों पर क्रोधित हुए और उन्हें मारने के लिए तत्पर हुए | इस पर कबूतरों ने कहा - हे प्रभु हमने आपसे अमर होने की कथा सुनी है यदि आप हमें मार देंगे तो अमर होने की यह कथा झूठी हो जाएगी | इस पर शिव जी ने कबूतरों को जीवित छोड़ दिया और उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम सदैव इस स्थान पर शिव पार्वती के प्रतीक चिन्ह के रूप निवास करोगे |



अत: यह कबूतर का जोड़ा अजर अमर हो गया। माना जाता है कि आज भी इन दोनों कबूतरों का दर्शन भक्तों को यहां प्राप्त होता है | और इस तरह से यह गुफा अमर कथा की साक्षी हो गई व इसका नाम अमरनाथ गुफा पड़ा। जहां गुफा के अंदर भगवान शंकर बर्फ के प्रकृति द्वारा निर्मित शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं। पवित्र गुफा में मां पार्वती के अलावा गणेश के भी अलग से बर्फ से निर्मित प्रतिरूपों के भी दर्शन करे जा सकते हैं।
इस पवित्र गुफा की खोज के बारे में पुराणों में भी एक कथा प्रचलित है कि एक बार एक गड़रिये को एक साधू मिला, जिसने उस गड़रिये को कोयले से भरी एक बोरी दी। जिसे गड़रिया अपने कन्धे पर लाद कर अपने घर को चल दिया। घर जाकर उसने बोरी खोली। वह आश्चर्यचकित हुआ, क्योंकि कोयले की बोरी अब सोने के सिक्कों की हो चुकी थी। इसके बाद वह गड़रिया साधू से मिलने व धन्यवाद देने के लिए उसी स्थान पर गया, जहां पर वह साधू से मिला था। परंतु वहां पर उसे साधू नहीं मिला, बल्कि उसे ठीक उसी जगह एक गुफा दिखाई दी। गड़रिया जैसे ही उस गुफा के अंदर गया तो उसने वहां पर देखा कि भगवान भोले शंकर बर्फ के बने शिवलिंग के आकार में स्थापित थे। उसने वापस आकर सबको यह कहानी बताई और इस तरह भोले बाबा की पवित्र अमरनाथ गुफा की खोज हुई । ये गुफा लगभग 5,000 साल पुरानी है और समुद्रतल से 13,600 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई (भीतर की ओर गहराई)19 मीटर और चौड़ाई 16 मीटर है। गुफा 11 मीटर ऊँची है।

सोमवार, 16 जुलाई 2012

नजरिया ये भी ..


यूँ तो मैं व्यक्तिगत रूप से हिंदू धर्म को छोड़कर किसी अन्य धर्म विशेष पर कभी कोई टिप्पणी नहीं करता और हिंदू धर्म पर इसलिए करता हूँ क्योंकि मैं स्वयं को हिंदु मानता हूँ और अपने धर्म पर टिप्पणी करने का सभी को नैतिक हक है । किंतु कल डॉक्टर सुब्रह्मणियम स्वामी का इंटरव्ह्यू देख रहा था। उन्होने मस्जिदों और मंदिरों के संदर्भ में बड़ी गँभीर बात कही । जो वास्तव में विचारणीय है । जो बंधु उस वक्तव्य को ना सुन पाये हों या सुन कर भी ध्यान ना दिया हो उनके लिए पुन: इस विचारणीय तथ्य को संज्ञानार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ ।   


अरब देश मुस्लिम धर्म को मानने वाले इस विश्व के सबसे सर्वोत्तम देशों में माने जाते हैं किंतु संयुक्त अरब अमीरात में एक सड़क बनाने में व्यवधान उत्पन्न कर रहे मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया । कहा जाता है कि इस मस्जिद में कभी हजरत मोहम्मद ने भी नमाज पढ़ा था । इतनी महत्वपूर्ण मस्जिद होने के बावजूद भी उसे केवल एक सड़क बनाने के नाम पर ध्वस्त कर दिया गया । जाहिर है लोगों की आस्था को भी चोट पहुँची होगी और लोगों ने विरोध भी किया होगा लेकिन वहाँ की अथॉरिटी ने ऐसा तर्क दिया जिसका किसी मुसलमान के पास कोई जवाब नहीं था और कोई भी मुसलमान इस तर्क से असहमत भी नहीं हो सकता ।

तर्क था – मस्जिद केवल नमाज अदा करने की जगह है
, एक व्यवस्था है जहाँ लोग इकठ्ठे होकर खुदा का सजदा कर सकें । उस स्थल या भवन का कोई धर्मिक महत्व नहीं हैं । यदि मस्जिदों के स्थानों और भवनों पर आस्था रखी जायेगी तो यह गैर इस्लामिक चरित्र होगा क्योंकि कुरान में बुतपरस्ती गुनाह है । इसलिए मस्जिदों को केवल नमाज पढ़ने के स्थान के रूप में ही देखना चाहिए ना कि धार्मिक आस्था के केंद्र के रूप में ।
 

इस तर्क को बाबरी मस्जिद के परिपेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए । बाबरी मस्जिद में कई वर्षों से कोई नमाज अदा नहीं की गई । इसका सीधा अर्थ यह है कि यह भवन अब मस्जिद नहीं है केवल एक खण्डहर भवन मात्र है । इसके गिराये जाने अथवा गिरने से धार्मिक कुठाराघात या मानवता पर शर्म जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए । देश में हजारों ऐसे खण्डहर और पुराने भवन रोज गिराये जाते हैं ।
 

जहाँ तक मंदिरों के भवनों के प्रति भी ऐसी ही भावना रखने के संदर्भ में जब स्वामी से पूछा गया तो उन्होने कहा कि मंदिरों की बात अलग है । उनमें भगवान के मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है सो ऐसे मंदिरों को तोड़ा जाना धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात और नैतिक रूप से गलत है । लेकिन उन्होने साथ में ये भी कहा कि ऐसे मंदिर जो कुकुरमुत्ते की तरह सड़कों के किनारे या यहाँ वहाँ व्यक्तिगत लाभ हेतु या जमीन पर कब्जा बनाने के उद्देश्य से बनाये गये हों उन्हे अवश्य ही तोड़ा जाना चाहिए । ये भवन मंदिर नहीं अतिक्रमण हैं ।
 

ये बातें कई लोगों को उन्माद से भर सकती हैं । कई हिंदुवादी लोग इस पर ढोल-नगाड़ा पीट कर जश्न मना सकते हैं और कई कट्टर मुस्लिम चरमपंथी इस पर गाली गलौज के स्तर पर भी जा सकते हैं । इन दोनो श्रेणी के लोगों का मानवता से कोई लेना देना नहीं होता सो मुझे इसकी फिक्र नहीं लेकिन तीसरी श्रेणी के लोग जो धर्मनिरपेक्ष की श्रेणी में खुद को रखकर महान मानवतावादी होने का दावा करते हैं , उनकी प्रतिक्रियाओं का मुझे बेसब्री से इंतजार है ।
उनकी प्रतिक्रिया ही तय करेगी कि वे वास्तव में सेकुलर हैं या शेखुलर ।